लॉकडाउन : पहले तराशते थे मोती, अब बेच रहे गांव-गांव जाकर समोसा
by कानपुर देहात। निज संवाददाताइसे लॉकडाउन की बेबसी ही कहेंगे कि जो हाथ मोतियों को तराशकर साड़ियों की खूबसूरती में चार चांद लगा देते थे वह आज परिवार का पेट पालने के लिए समोसा बेच रहे हैं। गुजरात के वापी में अपनी कारीगरी का लोहा मनवाने वाले सुनील की जिंदगी भी कोरोना काल में लॉकडाउन हो गई। वहां काम बंद हुआ तो वह वापस गांव लौट आया। अब परिवार का पेट पालने के लिए वह घर में समोसे बनाते हैं और साइकिल से गांव-गांव घूमकर बेचते हैं।
रूरा नई बस्ती के सुनील कुमार करीब सात महीने पहले रोजगार के लिए एक दोस्त के कहने पर गुजरात पहुंचे थे। गुजरात के वापी शहर में एक साड़ी बनाने वाली फैक्ट्री में साढ़े पांच हजार रुपये महीना पर उन्हें काम मिला। इसके साथ ही साथ उन्होंने साड़ियों में लगने वाले मोतियों की कटाई और फिनिशिंग का काम भी सीख लिया। इसका नतीजा यह हुआ कि कुछ ही महीने में उन्हें 35 हजार रुपये महीने की पगार मिलने लगी, लेकिन यह खुशी कोरोना ने छीन ली। फैक्ट्री बंद हुई तो काफी दिन तक वहीं फंसे रहे। अलग अलग-अलग साधनों से घर पहुंचे। यहां पत्नी मधू के अलावा दो बच्चों की परवरिश का संकट था। इस पर वह घर में समोसे बनाने शुरू किए और साइकिल से उसे बेच कर परिवार पाल रहे हैं।
मकान के किराए से कम हो रही यहां आमदनी :
सुनील की मानें तो वहां कंपनी में वेतन बढ़ने के बाद साढ़े चार हजार रुपए का मकान किराये पर लेकर रह रहा था। यहां समोसे बेचकर उतना पैसा नहीं मिल रहा जितना वहां वह मकान का किराया देता था। बस किसी तरह दो पहर की रोटी का इंतजाम हो रहा है।
मशीन पर होती मोतियों की कटिंग: सुनील की मानें तो साड़ी में लगने वाले मोतियों की कटिंग मशीन पर होती है। कई बार बहुत छोटे मोती काटने होते हैं। उसमें एकाग्रता की सबसे अधिक जरुरत होती है। इसके बाद उनकी फिनशिंग करके चमक लाई जाती है। एक दिन में करीब चार से पांच साड़ियों के लिए मोती तैयार हो जाते हैं।
50 हजार तक की साड़ियों में जड़े जाते हैं मोती
सुनील की मानें तो उनके तराशे गए मोतियों को बाद कारीगर साड़ियों पर सजाते हैं। इन मोतियों से ही साड़ी की कीमत और रौनक बढ़ती है। 10 हजार से लेकर 50-60 हजार तक की साड़ियों में भी उनके बनाए मोती जड़े जाते थे।