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सजा-ए-मौत केस: पीड़ितों के हक से जुड़ी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई को तैयार

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उच्चतम न्यायालय मौत की सजा के मामलों में पीड़ित और समाज केंद्रित दिशा निर्देश बनाने के लिए केंद्र की याचिका पर विचार करने के लिए शुक्रवार (31 अक्टूबर) को राजी हो गया। केंद्र ने 22 जनवरी को याचिका दायर कर दलील दी थी कि मौजूदा दिशानिर्देश केवल आरोपी और दोषी केंद्रित हैं। प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने उन सभी पक्षकारों से जवाब मांगा है जिनकी याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने 2014 में दोषियों को मौत की सजा देने संबंधित दिशा निर्देश बनाए थे। पीठ में न्यायमूर्ति बी आर गवई और न्यायमूर्ति सूर्यकांत भी शामिल रहे।

2014 में शत्रुघ्न चौहान मामले में दिशानिर्देश बनाए गए थे। पीठ ने स्पष्ट कर दिया कि केंद्र की याचिका पर सुनवाई करते हुए शत्रुघ्न मामले से संबंधित दोष सिद्धि और मौत की सजा का मुद्दा यथावत रहेगा। पीठ ने शत्रुघ्न चौहान मामले में नामित प्रतिवादियों को नोटिस जारी किया। पीठ ने प्रतिवादियों को नोटिस जारी किया जिन्हें शत्रुघ्न चौहान मामले में प्रतिवादी के तौर पर नामित किया गया था। इसने कहा, ''नोटिस जारी किया जाए। पीड़ित केंद्रित और समाज केंद्रित दिशानिर्देशों को देखते हुए यह अदालत मामले में दोष सिद्धि या सजा को नहीं बदलेगी।"

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केंद्र की तरफ से पेश हुए सोलीसीटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि भारत सरकार ने आवेदन देकर मौत की सजा के मामलों को दिशानिर्देश पीड़ित और समाज केंद्रित बनाने की मांग की है। उन्होंने कहा कि शीर्ष अदालत ने 2014 में शत्रुघ्न चौहान बनाम भारत सरकार मामले में ऐसे दिशानिर्देश बनाए जो मौत की सजा के मामलों में आरोपी केंद्रित हैं।

मेहता ने कहा कि मौत की सजा उन मामलों में दी जाती है जो अदालत की सामूहिक चेतना को झकझोर दें और इसलिए भारत सरकार अदालत से अपील करती है कि ऐसा दिशानिर्देश बनाएं जो पीड़ित और समाज केंद्रित हों और उसमें इस तरह की समय सीमा नहीं हो कि मौत की सजा पाए व्यक्ति को कब फांसी पर लटकाया जाएगा।

पीठ ने कहा कि शत्रुघ्न चौहान का मामला अंतिम है क्योंकि समीक्षा और सुधारात्मक याचिकाएं खारिज हो चुकी हैं। इसने सुझाव दिया कि केंद्र किसी लंबित मामले में याचिका दायर कर सकता था न कि उस मामले में जिसे अंतिम रूप दिया जा चुका है। मेहता ने इस तथ्य को स्वीकार किया और कहा कि उन्होंने याचिका में मामले की स्थिति का जिक्र भी किया है, लेकिन केंद्र की तरफ से आवेदन शत्रुघ्न चौहान मामले में दायर किया गया है क्योंकि उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में ही दिशानिर्देश तय किए थे। उन्होंने कहा, ''उच्चतम न्यायालय द्वारा तय दिशानिर्देश की कड़ी में ही मैं आगे की मांग कर रहा हूं जो पीड़ित केंद्रित और समाज केंद्रित है।"

बहरहाल पीठ ने कहा कि शीर्ष अदालत ने कई मामलों में कानून तय किए हैं जो पीड़ित और समाज केंद्रित हैं। मेहता ने कहा, ''मौत की सजा पाए दोषी के पास कानूनी और संवैधानिक उपचार हासिल करने की सीमा नहीं है। अदालत को अब पीड़ित और समाज के हितों का संज्ञान लेना चाहिए और ऐसे दिशानिर्देश तय करने चाहिए जो आरोपी के लिए तय दिशानिर्देश की आगे की कड़ी हों।"

पीठ ने कहा कि शत्रुघ्न चौहान मामले में संलिप्त पक्षों को नोटिस जारी किया जाना चाहिए और उनके जवाब पर गौर किया जाए। घृणित अपराध में संलिप्त लोगों के ''न्यायिक प्रक्रिया का मजाक" बनाने पर गौर करते हुए केंद्र ने 22 जनवरी को उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और ब्लैक वारंट जारी होने के बाद फांसी की सजा की समय सीमा सात दिन करने की मांग की। 2012 के निर्भया सामूहिक बलात्कार मामले में चार दोषियों की फांसी की सजा में विलंब को देखते हुए केंद्र ने उच्चतम न्यायालय में यह अर्जी दायर की थी।

दिल्ली की अदालत ने विनय शर्मा (26), अक्षय कुमार सिंह (31), मुकेश कुमार सिंह (32) और पवन (26) को एक फरवरी को फांसी देने के लिए 17 जनवरी को फिर से मौत का वारंट जारी किया था। याचिकाओं के लंबित रहने के कारण 22 जनवरी को तिहाड़ जेल में उन्हें फांसी नहीं दी जा सकी। दोषियों को, उनके द्वारा कई महीने से समीक्षा, सुधारात्मक और दया याचिकाएं दायर किए जाने के कारण फांसी दिए जाने में विलंब हो रहा है, जिससे निर्भया के माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्यों के न्याय का इंतजार लंबा होता जा रहा है।

केंद्र ने कहा कि आम जनता और पीड़िता एवं उसके परिवार के हित में यह आवश्यक है। शत्रुघ्न चौहान मामले में 2014 में जारी दिशानिर्देशों में संशोधन की मांग करते हुए इसने कहा है, ''सभी दिशानिर्देश आरोपी केंद्रित हैं। इन दिशानिर्देशों में पीड़ितों और उनके परिवार के सदस्यों के मानसिक आघात, क्षोभ, उनके जीवन में उथल-पुथल और अस्त-व्यस्तता का ध्यान नहीं रखा गया। इसमें देश की सामूहिक चेतना और फांसी की सजा के निवारक प्रभावों का संज्ञान नहीं लिया गया।" केंद्र ने कहा कि 2014 के फैसले से पहले और बाद में घृणित अपराध के दोषियों ने अनुच्छेद 21 (जीवन के अधिकार) की आड़ में ''न्यायिक प्रक्रिया का मजाक" बनाया।